Friday, September 11, 2015

प्रेमपत्र नंबर : ७८६ :

मुझे लिखना अच्छा लगता है. और ख़ास कर तुम्हे लिखना. और जब मैं तुम्हे लिखता हूँ तो बस सिर्फ तुम ही तो होती हो. और दूसरा कोई हो भी नहीं सकता न. मैं तुममे मौजूद स्त्री के प्रेम में हूँ और जब मैं उस स्त्री के प्रेम मे होता हूँ जो कि तुम हो तो मेरी कोई और दुनिया नहीं होती है. और सच कहूँ तो हो भी नहीं सकती ! और जब तुम, तुममे मौजूद स्त्री और उस स्त्री में मौजूद प्रेम जो कि शायद मेरे लिए ही मौजूद होते है तब मैं लिखता हूँ अक्षर, प्रेम, कविता , कथा और ज़िन्दगी ! © विजय

1 comment:

  1. तुम लिखते रहो और मैं पढ़ती रहूँ .......जानती हूँ प्रत्युत्तर की जरूरत नहीं फिर भी सोच में हूँ .......वो जिसे तुमने देखा नहीं , जाना नहीं बस ख्यालों की तस्वीर को ही पूजा जिसने , कैसे तार्रुफ़ कर लेते हो दिनकर के प्रकाश में भी चाँद का ........शायद यही मोहब्बत होती है .........सुना है , मोहब्बत करने वालों की आँख में पूरी दुनिया समाई होती है और उसी दुनिया में कर लेते हो दीदार दिलबर का .......नहीं , नहीं भेजूंगी ये ख़त तुम्हें कभी भी ........जानती हूँ न ......पढ़ लोगे बिना मिले भी

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